The Silent Terrace
by Roshni Arya in Dakshinpuri, Delhi
Watch Roshni read her text, with video footage of rooftops in Dakshinpuri.
I had never thought that I will fall in love with the terrace so much that I will like to stay there all twenty four hours. The lockdown feels like a jail. From morning ‘til night I am busy with household chores. Even if we eat leftovers from the previous night for breakfast, it has to be heated. By the time all of this is finished, I have to think of lunch.
Today I went up to the terrace after a long time. I felt I have come to a place where I can breathe. I looked towards other terraces. A man was feeding his pigeons. A woman was watering her potted plant. Avani, her mother and a few other women were chatting .It seemed as if the wind was expressing its joy through speed. The hair of the women were flying like kites in the wind. The wind was also blowing in the fragrances of vegetables being cooked in different homes. The terrace rejuvenated me.
One day when I had gone to the terrace to take down the dried clothes, a young woman, a little older than me, was also taking down the dried clothes on the adjacent terrace. She asked me whether I live here and I told her, “Yes, I have been living here for the last four years. But I have not seen you before.” Then I asked about her. She told me her story:
“My father and brother live here. I had been married and have two children. I lived in Sanjay Camp. Then my husband died in an accident. For some time, I managed to live on my own. But since this Corona came ,followed by the lockdown, I lost all courage. Now I am going to the village. My mother lives there. We will manage somehow. At least there is shelter. Here there is nothing. I am just waiting for the trains to start running. They are not even taking bookings.”
I was enjoying my solitude on the terrace and preoccupied with looking around. I kept saying “Yes..yes…” without paying much attention. She realized this and left with the excuse that she had to do the cooking. A little later I also went down. I had heard her, but not listened. Upon meeting me, she shared her story. These day you won’t find people with whom you can share.
The next day when I went up I saw two children running on the terrace. I learnt that they were her children. I loved watching them play. Unaware of the sadness of their mother, they were happily jumping around. But my eyes were looking for her. I was eager to talk to her, listen to her. But she did not come. When I went down, I learnt that she was leaving for her village soon.
After that whenever I go to the terrace, her words keep ringing in my ears. I feel her children are running in front of me. I feel sad that I was unable to understand her. Perhaps she was sharing her story for the first time …Whenever I am there on the terrace I feel like sitting quietly and ruminating…
Original Hindi text:
गुमसुम सी छत
रोशनी आर्य
मैंने कभी सोचा भी नहीं था की कभी मुझे छत से उतना प्यार हो जाएगा कि मैं चौबीस घंटे छत पर ही रहना पसंद करने लगूँगी। अपने समय को छत पर ही एंजॉय करूंगी। शुरू में मेरे लिए लॉकडाउन एक जेल की तरह ही था। किसी और के बारे में मैं क्या कहूँ, मैं खुद पूरे दिन घर ही में बंद रहती थी। सुबह से शाम तक बसघर काम ही काम रहता था। रात का बचा खाना अगर सुबह में खाना है तो उसे कैसे तैयार करें, यह निपटता तो दोपहर के खाने के बारे में सोचने लग जाती। दिन मेंअगर थोड़ा-सा टाइम मिल भी जाता तो बस टीवी में ध्यान लगा लेती। एक-दूसरे से बात करते भी तो क्या करते? जहाँ पहले सुबह पाँच बजे होती थी वहाँ वहआजकल नौ बजे हो रही थी।
आज काफी दिनों के बाद जब मैं छत पर गई तो शाम के चार बज रहे थे। भाई के दोस्त वहीं खड़े आपस में बात कर रहे थे। आज छत पर होना अच्छा लग रहाथा। ऐसा लग रहा था मानो ऐसी जगह पर आ गई हूँ जहाँ साँस लेने के लिए खुली हवा है। पिछली गली के घरों को देख रही थी जहाँ एक आदमी हमेशा अपनेपाले हुए कबूतरों को दाना खिलाया करते थे, बगल वाली छत पर एक औरत गमलों में पानी दे रही थी। सामने वाली छत पर अवनी अपनी मम्मी के साथ कुछऔर औरतों के साथ बैठी बातें कर रही थी। तेज़ चलती हवाएँ मानो अपनी खुशी जाहिर कर रही हों। बात करती औरतों के बाल पतंगों की तरह हवा में उड़ रहे थे।हवाएँ अपने साथ घरों में बनती सब्ज़ियों की खुशबू लिए चली आ रही थीं। आज छत मुझे ताज़ा कर रही थी, लगता था कि यह छत ही मेरी सच्ची दोस्त है।
अब मैं रोज छत पर जाने लगी थी। एक दिन जब मैं सूखे हुए कपड़ों को उतारने छत पर आई तो बगल वाली छत से एक दीदी भी कपड़े उतारने आई हुई थीं।उन्होने मुझसे पूछा–'अब तुम यहीं रहती हो'
मैंने कहा–'हाँ।'
और आप ? मैंने पूछा।
तब फिर दीदी बोलीं–'नहीं! पहले यहाँ इनकी पूरी फैमिली रहती थी। मैं तब छोटी थी। वह फैमिली उसी समय से यहाँ रहती है।'
मैंने कहा–'मुझे तो चार साल हो गए पर मैंने आज आपको पहली बार देखा।'
उन्होने कहा–'मेरे पापा यहाँ रहते हैं। मेरी तो शादी हो गई है और दो बच्चे भी हैं। अभी मैं यहाँ गाँव जाने के लिए आई हूँ, मेरी मम्मी गाँव में ही रहती है। यहाँ मेरेपापा और मेरे भाई रहते हैं। मैं संजय कैंप में रहती थी मगर मेरे पति चार साल पहले एक कार एक्सीडेंट के कारण नहीं रहे। पहले तो मैं बच्चों को जैसे-तैसे पाल रहीथी। मगर जब से यह कोरोना हुआ और लॉकडाउन लगा तो मैं पूरी तरह से हिम्मत हार गई। अब मैं भी गाँव जा रही हूँ। मैं गाड़ी चलने का इंतज़ार कर रही हूँ। गाड़ीमें बुकिंग ही नहीं मिल रहा है। मैं सोच रही हूँ कि बच्चों को लेकर गाँव में ही शिफ्ट हो जाती हूँ। यहाँ तो कुछ नहीं हो पाएगा। गाँव में एक अपने सिर पर छत तो है, सिर ढकने के लिए।'
मैंने कहा–'हाँ! यह तो है।'
जब वो अपनी कहानी सुना रही थीं तो मेरा ध्यान उनकी ओर था ही नहीं, मैं तो बस आसपास को देखे जा रही थी। पर वह बोले ही जा रही थीं.... मैं बस उनकीबातों पर हूँ…हाँ… हूँ.. कर रही थी। छत पर मुझे एकांत मिल रहा था। इस कारण मेरा ध्यान उनकी बात पर था ही नहीं। उन्हें इस बात का अहसास हो गया थाऔर वह खाना बनाने के बहाने नीचे चली गईं।
कुछ देर बाद मैं भी नीचे चली आई। मैंने उनकी बातें सुनी तो थीं मगर मैं उन्हे सोच नहीं पा रही थी। मुझे उन्हे याद करके ऐसा लग रहा था कि इन दिनों अपनीसुनाने और दूसरों की सुनने के लिए लोग ही कहाँ मिल रहे हैं? लोगों के पास फुर्सत ही कहाँ है–एक-दूसरे को सुनने की? उन्हें शायद लगा कि मैं उनके पास खड़ी हूँतो मुझे ही सुनाने लग गईं।
वैसे मैं छत पर कम ही जाती थी क्योंकि भाई अपने दोस्तों से ही बात करते रहता था और मैं बोर हो जाती थी। दूसरे कि लॉकडाउन के कारण लोग बाहर नहीं जापा रहे थे तो इस कारण हमारे मकान मालिक और पहली मंज़िल पर रहने वाले लोग इन दिनों अपने कुत्तों को छत पर ही टॉयलेट करवा रहे थे। पूरी छत पर बदबूही बदबू फैली रहती थी। जाने का मन ही नहीं करता था।
अब मुझे मौका मिल गया था छत को अपनी जिंदगी से जोड़ लेने का। मैं अगले दिन फिर से छत पर गई तो देखा दो बच्चे मेरी छत पर दौड़ लगा रहे हैं। मैं उन्हेंदेखने लगी। उन्हें खेलता देख मन को अच्छा लगा। बाद में पता चला कि मैंने जिनसे कल बात की थी ये बच्चे उन्हीं के हैं। उन दोनों बच्चों के चेहरे पर कोई उदासीनहीं थी। वे अपनी मम्मी की उदासी से अनजान बस खेल रहे थे। और मेरा ध्यान उनकी मम्मी की तरफ था, मेरी आँखे उन्हें तलाश रही थी। मन कर रहा था कि वेआएँ और मुझसे बात करें। इन दिनों मैं भी किसी से बात नहीं कर पा रही थी। लेकिन वो थी ही नहीं। वो दिन मेरा ऐसे ही गुज़र गया। वो मिली ही नहीं। अगले दिन जब शाम को मैं अपने दरवाजे पर खड़ी थी तो पता चला की उनकी गाड़ी बुक हो गई और वह अपने गाँव के लिए निकलने वाली हैं।
उसके बाद जब भी मैं छत पर जाती तो ऐसा लगता कि उनकी कही बातें अब भी मेरे कानों में गूँज रही है। उनके बच्चे खेल रहे हैं। मैं उनकी बातों को सुन ही नहींपाई थी। आज मुझे खुद को सोच कर ऐसा लग रहा था कि उनके जीवन की कहानी को मैं समझ ही नहीं पाई थी। मैं उस दिन पहली बार छत पर आई थी और वोपहली बार शायद किसी को अपनी बात बता रही थीं। तब से मैं जब भी जाती अपने एकांत में गुमसुम-सी बैठी रहती। यह रोज़ की कहानी थी मेरी...।
Roshni Arya is 14 years old and in 10th grade. She has been writing with Ankur since 2016.
This text was translated into English by Jayawati Shrivastava (Jaya), the former director of Ankur—Society for Alternatives in Education.